पौधे का औषधीय या वैज्ञानिक नाम - Clematis Recta Linnious है।
विभिन्न भाषाओं में प्रचलित नाम - क्लीमेटिस लिनियस की लगभग 280 जातियों का विशाल वंश है। इस वंश के लगभग सभी पौधे आकर्षक फूलो के लिए पसंद किये जाते है। इसकी लगभग 25 प्रजातियां भारत में पायी जाती है। इसको संस्कृत में मूर्वा, हिंदी में मुरहरि,मूर्वा चुरनहार, और गुजराती में मोरबेल कहा जाता है।
वंश - यह रैनुनकुलैसी (Ranunculaceae) वंश की वनस्पति है। इस वंश में इसकी कुल 280 जातिया पाई जाती है।
निवास - यह वनस्पति दक्षिण इंगलैंड और वेल्स का मूल निवासी है यह यूरोप के सम्पूर्ण पहाड़ी ढलानों पर इसकी लताये पायी जाती है। यह वनस्पति भारत में बॉम्बे, कोंकण, पश्चिमी घाट, डेकन और हिमालयी क्षेत्रों में पैदा होती है।
पौधा विन्यास वर्णन - यह एक आरोही पौधा है जो अपनी पतली पतली शाखाओ द्वारा दूसरे वृक्षों या झाड़ियों का सहारा लेकर बढ़ती है। इसकी लताओं की लम्बाई लगभग 50 फिट तक होती है। इसकी एकान्तर पत्तिया परदार (Pinnatisect), हल्की गोलाई लिए हुए (Small oval or Eliptical) दाँतेदार (Serrate) होती है। पत्तियों के अग्रभाग कण्टकाकृति होती है। शाखाओ से यूक्त घुमावदार वृन्तो पर चमकीली छोटी छोटी सहपत्रियाँ (Leaflats) होती है। इसके फूलो में 4 अदद बाह्यदल पुंज (Sepalled) होते है। जिनका रंग उजला और आकार आयताकार (Oblong obtuse) होता है। इसकी टहनियों पर फूल अत्यधिक शंख्या में और समूह में होते है।
औषधीय कार्य हेतु वनस्पति का उपयोगित भाग - औषधीय कार्य के लिए इस वनस्पति की जड़ें और पत्तिया व्यवहार किया जाता है। पौधे का संकलन ग्रीष्म ऋतू में किया जाता है।
वनस्पति से प्राप्त रसायन पदार्थ - इस वनस्पति की पत्तियों में Clemantine, Clematitol, caulosaponin, Phytosterol, Stigmasterin आदि पाए जाते है।
रासायनिक पदार्थो के गुण धर्म और शारीरिक क्रियाये - इस वनस्पति से प्राप्त रसायन कुष्ठ रोग, रक्त विकार और ज्वर की चिकित्सा में किया जाता है। इसका बाहरी प्रयोग खुजली, फोड़े-फुन्सियों में अति लाभकारी है। यह परजीवी कीटाणुओं, रोगाणुओं, जीवाणुओं (Antibiotic, Antiviral, Antiseptic) को नष्ट करती है। इसके अनुपान से प्यास, ह्रदय रोग और पित्त वमन दूर होती है गर्मी (Syphilis), कंठमाला (Scrofula) रक्तपित्त, खुजली, कुष्ठ आदि में इसका Decoction लाभदायक परिणाम देता है।
चर्म, लसिका ग्रन्थियों (Lymphatic nodes or glands) और मूत्र संस्थान के अंगो (Kidney) पर इसकी प्रधान क्रिया होती है। बहुत औंधाई आना, सुजाक की वजह से अंडकोष का प्रदाह, मूत्रनली की बीमारियों, श्वेतप्रदर, (Leukorrhae) अर्बुद (Tumor) स्तन ग्रंथियों का प्रदाह (Mastitis) आदि रोगो में विशेष लाभदायक है। इसकी पत्तियों का रस नाक में दिया जाय तो अधकपारी का दर्द (Migrain) में अच्छा लाभ देता है और पत्तियों का रस सर्प दंश के उपचार में अतिहितकारी औषधीय मानी जाती है।
वनस्पति के व्यवहार का प्रचलित स्वरुप - इस वनस्पति का Infusion, Ointment, Liniment, Fluid extract, Tincture, Pultice, Oily lotion, आदि कई रूपों में किया जाता है। यह एक विषैली प्रभाव की वनस्पति है किसी भी रूप में इसकी स्थूल मात्रा का सेवन विषाक्तता उत्पन्न करती है।
Pic credit - Google/https://it.wikipedia.org |
विभिन्न भाषाओं में प्रचलित नाम - क्लीमेटिस लिनियस की लगभग 280 जातियों का विशाल वंश है। इस वंश के लगभग सभी पौधे आकर्षक फूलो के लिए पसंद किये जाते है। इसकी लगभग 25 प्रजातियां भारत में पायी जाती है। इसको संस्कृत में मूर्वा, हिंदी में मुरहरि,मूर्वा चुरनहार, और गुजराती में मोरबेल कहा जाता है।
Pic credit - Google/https://it.wikipedia.org |
वंश - यह रैनुनकुलैसी (Ranunculaceae) वंश की वनस्पति है। इस वंश में इसकी कुल 280 जातिया पाई जाती है।
निवास - यह वनस्पति दक्षिण इंगलैंड और वेल्स का मूल निवासी है यह यूरोप के सम्पूर्ण पहाड़ी ढलानों पर इसकी लताये पायी जाती है। यह वनस्पति भारत में बॉम्बे, कोंकण, पश्चिमी घाट, डेकन और हिमालयी क्षेत्रों में पैदा होती है।
पौधा विन्यास वर्णन - यह एक आरोही पौधा है जो अपनी पतली पतली शाखाओ द्वारा दूसरे वृक्षों या झाड़ियों का सहारा लेकर बढ़ती है। इसकी लताओं की लम्बाई लगभग 50 फिट तक होती है। इसकी एकान्तर पत्तिया परदार (Pinnatisect), हल्की गोलाई लिए हुए (Small oval or Eliptical) दाँतेदार (Serrate) होती है। पत्तियों के अग्रभाग कण्टकाकृति होती है। शाखाओ से यूक्त घुमावदार वृन्तो पर चमकीली छोटी छोटी सहपत्रियाँ (Leaflats) होती है। इसके फूलो में 4 अदद बाह्यदल पुंज (Sepalled) होते है। जिनका रंग उजला और आकार आयताकार (Oblong obtuse) होता है। इसकी टहनियों पर फूल अत्यधिक शंख्या में और समूह में होते है।
औषधीय कार्य हेतु वनस्पति का उपयोगित भाग - औषधीय कार्य के लिए इस वनस्पति की जड़ें और पत्तिया व्यवहार किया जाता है। पौधे का संकलन ग्रीष्म ऋतू में किया जाता है।
वनस्पति से प्राप्त रसायन पदार्थ - इस वनस्पति की पत्तियों में Clemantine, Clematitol, caulosaponin, Phytosterol, Stigmasterin आदि पाए जाते है।
रासायनिक पदार्थो के गुण धर्म और शारीरिक क्रियाये - इस वनस्पति से प्राप्त रसायन कुष्ठ रोग, रक्त विकार और ज्वर की चिकित्सा में किया जाता है। इसका बाहरी प्रयोग खुजली, फोड़े-फुन्सियों में अति लाभकारी है। यह परजीवी कीटाणुओं, रोगाणुओं, जीवाणुओं (Antibiotic, Antiviral, Antiseptic) को नष्ट करती है। इसके अनुपान से प्यास, ह्रदय रोग और पित्त वमन दूर होती है गर्मी (Syphilis), कंठमाला (Scrofula) रक्तपित्त, खुजली, कुष्ठ आदि में इसका Decoction लाभदायक परिणाम देता है।
चर्म, लसिका ग्रन्थियों (Lymphatic nodes or glands) और मूत्र संस्थान के अंगो (Kidney) पर इसकी प्रधान क्रिया होती है। बहुत औंधाई आना, सुजाक की वजह से अंडकोष का प्रदाह, मूत्रनली की बीमारियों, श्वेतप्रदर, (Leukorrhae) अर्बुद (Tumor) स्तन ग्रंथियों का प्रदाह (Mastitis) आदि रोगो में विशेष लाभदायक है। इसकी पत्तियों का रस नाक में दिया जाय तो अधकपारी का दर्द (Migrain) में अच्छा लाभ देता है और पत्तियों का रस सर्प दंश के उपचार में अतिहितकारी औषधीय मानी जाती है।
वनस्पति के व्यवहार का प्रचलित स्वरुप - इस वनस्पति का Infusion, Ointment, Liniment, Fluid extract, Tincture, Pultice, Oily lotion, आदि कई रूपों में किया जाता है। यह एक विषैली प्रभाव की वनस्पति है किसी भी रूप में इसकी स्थूल मात्रा का सेवन विषाक्तता उत्पन्न करती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें