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Nasturtium Officinale R. Br. – औषधीय गुणों से भरपूर जलकुंभी का पौधा

Nasturtium Officinale R. Br. – जलकुंभी की पहचान, फायदे और उपयोग


Nasturtium Officinale का पौधा (जलकुंभी) – हरे पत्तों वाला औषधीय पौधा

 

**कॉम्पेन्डियम ऑफ इलेक्ट्रो होम्यो-पैथिक मेडीसीमल प्लान्ट्स एण्ड मेडीसीन्स"


खण्ड-प्रथमः प्रकरण 63; पौधा कोड नं0-63


Nastratium Officinale R. Br.


E = घरेलु उपयोगी; M = औषधोय


1. वनस्पति का वैज्ञानिक या औषधीय नाम - नास्टर्टियम ऑफ़िसिनेल आर. ब्राउन, (Nastrutium officinale Rox. Brown) पर्याय (synonym). = Nastrutium fontanum Aschers. (G.1.M.P. Page 174) = Sisymbrium Cardaminefolium Gilib. Sisymbrium Nastrutium Aquaticum Linnious (MEMP, Page 203 सचित्र) Rorippa Nastrutium Aquaticum (DPUM, Page 406; भारत की सम्पदा, खण्ड-३, पृष्ठ 341; C.I.M.P. Vol. 2, Page 480,588.)


2. इलेक्ट्रो होम्यो पैथी की औषधि विन्यास में एस० पी० सूत्र के अनुसार इसके टिक्चर के व्यवहृत अनुपात -


Scrofoloso No. Sttutmittel No. के विन्यास में इसकेटिंक्चर का भाग
Scrofoloso No. 1 Sttutmittel No. 1= S1 1.0
Scrofoloso No. 2 Sttutmittel No. 2= S2 2.5
Scrofoloso No. 3 Sttutmittel No. 3= S3 0.5
Scrofoloso No. 4 Sttutmittel No. 4= S4 5.8
Scrofoloso No. 5 Sttutmittel No. 5= S5 0.5
Scrofoloso No. 6 Sttutmittel No. 6= S6 2.5
Scrofoloso No. 7 Sttutmittel No. 7= S7 3.8
Scrofoloso No. 8 Sttutmittel No. 8= S8 3.0
Scrofoloso No. 9 Sttutmittel No. 9= S9 1.0
Scrofoloso No. 10 Sttutmittel No. 10= S10 1.0
Scrofoloso No.11 Sttutmittel No. 11= S11 0.5
Scrofoloso No. 12 Sttutmittel No. 12= S12 2.0
Cancereso No. 8 Gewebe Mittle No.8 = C8 7.8
Cancereso No. 9 Gewebe Mittle No.9=C9 4.0
Cancereso No. C11 Gewebe Mittle No.11=C11 1.9

मात्र व्यवहार किए जाते हैं।

3. विभिन्न भाषाओं में वनस्पति का प्रचलित नाम - हि० - पिरिया हलीम । बंगला - वीलरई। सिन्धी - काकुतुपला। उत्तर-पश्चिम हिमालय के क्षेत्रों में (कुमाऊँ) - पिरिया हलीम। दक्षिण भारत डेंकन में- लुटपुटिया । अंग्रेजी में सामान्य नाम - watercress, शब्द कोष के मुताबिक वाटर क्रेज का हिन्दी में शाब्दिक अर्थ "जल कुम्भी" होता है।


वंश - यह जलीय बूटी क्रूसिफेरी" (cruciferae) है। इस परिवार में इसकी लगभग 6 प्रजातियाँ पाई जाती है। DPMU, Page 40; MEMP Page 203 सचित्र, GIMP, Page 174). कुछ विद्वान इस वंश को "रोरिप्पा स्कोर्पोली" से भिन्न नहीं मानते हैं। उनके अनुसार जलकुम्भी का नाम रोरिष्पा नस्टशिंयम एक्वेटिकम (लिनिअस) हायेक है, (भारत की सम्पदा, खण्ड - 3, पृष्ट 341, सचित्र). समय के अन्तराल से औषधीय वनस्पतियों के नाम और वंश में परिवर्तन हुए हैं। चालू दशक (1991) में केन्द्रीय औषधि शोध संस्थान, लखनऊ द्वारा प्रकाशित 'कॉम्पेन्डियम आफ इन्डियन मेडीसीनल प्लान्ट्स" नामक ग्रन्थ के पृष्ठ 480 (खण्ड-2) के अनुसार यह वनस्पति 'ब्र'सीकेएसी" (Brassicaceae) वंश की औषधीय बूटी है।


5 निवासी - यह जलीय पौधा यूरोप, उत्तरी अफ्रिका, और पश्चिमी एशिया का मूल निवासी है। भारतवर्ष के साथ-साथ अन्य कई देशों में भी यह पौधा प्राकृत (natural) हो गया हैं। यह गढ्‌ढों, कुण्डों, तथा उथले सरिता तटों पर 2100 फीट की ऊँचाई तक सामान्य रूप से पायी जाती है। बलुचिस्तान, वजीरीस्तान, पंजाब और कई पहाड़ी क्षेत्रों (hill stations) में इसके पाए जाने की सूचनाए हैं (G.I.M.P. Page 174)


6. वनस्पति विन्यास का वर्णन - यह एक बहुशाखित, बहुबर्षी, सदाहरीत जलीय बूटी है। इसका तना विसर्पी या तैरने वाला होता है। इसकी अनेक छोटी जड़े, और ट्रोलींग बण्ठन (trailing = जिसके तना और जड़ में अन्तर न हो।) होती है। इसकी ऊँचाई लगभग 27 से 32 ई'चों तक होती है। इसकीं पत्तिया पिच्छाकार (Pinnatisect), पर्णक, सात से ग्यारह अदद तक, अवृन्त, अण्डाकार, आयताकार या लहरदार पालियुक्त कुष्ठाग्र होती हैं। अन्तस्थ की पत्तियाँ सबसे बड़ी होती है। इसके फूल सफेद छोटे-छोटे सीमाक्षों (ter.ninal of the small branches) पर लगते हैं। फूलो के बाह्य दल पुंजों (calyx) में चार अदद, पंखुड़िया (sepals) और पुष्प दल पु'जों में चार अदद पंखुड़ियां (petals) रहती हैं। पुष्पों में परागकों (pollen) की सान्द्रता उच्चतममान में होती हैं। इसके फलियों की सम्पुटिका लगभग बेलनाकार, बीज छोटे-छोटे, खण्डाभ और काँटेदार होती है। बन्धे हुए गन्दे जल में इसकी बाढ़ (growth) अच्छी बही होती है। स्वच्छ बहते जल में इसकी पैदावार अच्छी होती है। यह बीजों और कलमों द्वारा प्रवधित किया जाता है। बड़े वगानों के लिए बीओं से ही पौधे प्राप्त किए जाते हैं। भली प्रकार तैयार की गई क्यारियों में बीज छिटकाँवा बोये जाते है। पहली पत्तियाँ निकलते ही क्यारियों में इतना पानी भर दिया जाता है कि वह पौधों को ढक ले। व पौधे कुछ बड़े हो जाते हैं, तब उन्हें गुच्छों में उखाड़कर नहरों तथा बहते जल बाले तालाबों में पुनः प्रतिरोपित कर दिया जाता है, या क्यारियों में ही 30 सें० मि० की दूरी पर प्रतिरोपित करके इतना पानी भर दिया जाता है कि पौधे पानी में ढक जाएँ। कलमों द्वारा प्रवर्धन करते समय पौधों को पानी की बहाव की दिशा में 10 से० मी० की दूरी पर लगाया जाता है, और जबतक पौधे अच्छी तरह से लग नहीं जाते, तब तक उन्हें भली प्रकार सींचा जाता है। पौधों के नये कोमल प्ररोह, जब लगभग 15 से०मी० लम्बे हो जाते हैं, तब उनमें काफी मात्रा में हरी-हरी पतियों निकल आती हैं। इन्हें टुकड़ों में काटकर तथा बंडल में बाँधकर नए स्थानों में (बहते जल भण्डार तालाब या नहर) लगाने तक रखते हैं। (भारत की सम्पदा भाग - 3 पृष्ठ-341)


7. बनस्पति के व्यवहुत अंग - औषधीय कार्यों के लिए इस वनस्पति के पानी के ऊपरी भाग व्यवहार किए जाते हैं। पौधा का संकलन वसन्त ऋतु में किया जाता है (MEMP, Page -203)


8. वनस्पति से प्राप्त रासायनिक पदार्थ - इस वनस्पति के औषधीय योग्य अंगो में ग्लूकोनैस्ट्रटिन (gluconasturtin), एंजाइम्स (enzime) विटामीन "ए","बी", "सी" और "डी" पाए जाते हैं। इन रसायनों के अलावा इसमें सोडियम, निकोटिन, अन्य खनिज लवण आदि पाए जाते हैं। (MEMP, Page-203).


भारतीय जलकुम्मी या पिरिया हलिम के पौधों के विश्लेषण में विभिन्म रासायनिक पदार्थ निम्नांकित मान में पाए गये हैं- आर्द्रता या पानी 89.2%, प्रोटीन 2.9% वसा 0.2% कार्बोहाइड्रेटस 5.5% और खनिज पदार्थ 2.2%, जिस में कैलेशियम 290 मी० ग्रा०/100 ग्राम, फॉसफोरस 40 मी० ग्रा०/100 ग्राम लौह लवण 4.6 मी ग्रा०/100 ग्राम में पाए गए हैं। इसमें गन्धक, आयोडीन, मैंगनीज पर्याप्त मात्रा में पाए गए हैं। इसमें जस्ता, आर्सेनिक और अल्प मात्राएँ यौगिक रूप में पाए जाने की सूचना है। आहार में इसको मात्रा 5% होने पर पालक, गोभी, सच्चाद और हरी सेमो की अपेक्षा यह उत्तम पौष्टिक आहार होता है। इसमें पाए जाने वाले प्रोटीनों में अमीनों अम्लों (Amino acids) के संघटन निम्नांकित पाए गए हैं-ल्यूसीन 3.0, फेनिल ऐलानीन 1.0, वैलीन 1.2 लाइसीन 1.5, टाइरोसीन 0.6, ऐलानीन 1.0, ग्रेओनिन 15, ग्लूटैमिक अम्ल 2.7, सेरीन 0.6, ऐस्पैर्टिक अम्ल 4.0, सिस्टिन 1.0, मेथियोनीन-सल्फाक्साइड 0.1, और प्रोलीन 0.4 मी० ग्राम/प्रतिग्राम में पाए जाते हैं (Indian Medicinal Plants by K. R. kiritkar, B. D. Basu and an ICS. (Retd); the Structure and Composition of foods,-by A.L. Winton & K. B. Winton, New york,; Proteins in foods,-by S. Kuppaswamy, M. Srinivasan, New Delhi; The Chemical Composi-tion of Foods, by RA Mc Cance & EM. Widdowson, London)


पिरिया हकीम के पौधों (विशेषकर पत्तियों में) में विटामीन "ए" और 'ई' पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें एस्कार्विक अम्ल अर्थात् विटामीन "सी" भी प्रचूर मात्रा में उपस्थित रहता है। इसमें विटामीन "ए" 4720 I.U (Inter-national Unite), थाइमीन (विटीपीन बी1") 0.08 सी० ग्रा०, राइबोफ्लैविन (विटामीन "बी 2") 0.16 मी० ग्राम, नियासीन (विटामीन "बी6") 0.8 मी०ग्रा०, एस्कार्विक अम्ल 77 मी० ग्रा०, बायोटीन (विटामीन एच") 0.5 मी० ग्राम प्रति 100 ग्राम में पाए जाते हैं। शरीर में विटामीनों की कमी दूर करने के लिए भी या इनकी कमी से होने वाले रोगों की चिकित्सा के लिए भी इस वनस्पत्ति के रासायनिक पदार्थों का व्यवहार किया जाता हैं। (विटामीनों और खनिज लवणों की कमी के कारण होने वाले विभिन्न रोगों और बीमारियों की विस्तृत जानकारी के लिए डा० सुदामा प्रसाद सिंह, मानद सचिव, इहपरसी द्वारा रचित पुस्तक "इलेक्ट्रो होम्यो पैथी" टेक्स्ट बुक देखनी चाहिए ।) [The Nutritive value of Vegetable, Edited by the staff of the Heinz Nutritional Research Division in Mellon Institute (USA) under the supervision of L. L. Lachat 1946].

इसके बीजों में भी ग्लूकोनैस्टटिइन और न सूखने वाला वसायुक्त तेल पाए जाते हैं

रासायनिक पदार्थों के गुण धर्म और शारीरिक क्रियाएँ - इस बनस्पति में मूत्रकृच्छ (कष्टदायक मूत्र उत्सर्जब) और जल-गण्ड (scrofulla) में लाभदायक हैं। इसके रस या टिंक्चर का उपयोग नासिका के पालिप्स (pollypus = नासाबुद) की चिकित्सा के लिए सफलतापूर्वक किया जाता है। इसके रसायनों में रोगाणु और जीवाणु रोधक (antibiotie & antiviral) गुण और क्रियाएँ पाई जाती हैं। इसका व्यबहार सर्दी-जुकाम-खाँसी, दम्मा और यक्षमा (TB.) आदि रोगों में किया जाता है। वे पोष्टिक और बलकारी होते हैं। इसमें प्रतिस्कर्वी (antiscruvy), उद्दीपक (stimulant) और पाचन क्रिया बढ़ाने वाले (appetizer) गुण, धर्म भी पाए जाते है। इसके सलाद रूप में आहार में शामिल कर लेने से पर्याप्त मात्रा में सभी विटामीन्स की पूर्ति हो जाती है (भारत की सम्पदा-भाग-3. पृष्ठ-342).


इस बनस्पति के टिंक्चर और काढ़ा रक्त-शोधक (blood cleaner), कृमिनाशक, मूत्रल आदि क्रियाएँ प्रकट करते है (Materia-Medica vegetabilis, by E.F. Steinmetz (Amsterdam), 3 vol. 1954; Pacific Science, Honolulu).


इस वनस्पति का घरेलू उपयोग ख़ासी, श्वासनली का स्राव, पुराना प्रादाहिक रोग, त्वचा की खुजली, आमवात (rheumatism), गुर्दे, मुत्राशय, आंख, पेठ आदि की बीमारियों और पत्थरी की चिकित्सा के लिए तथा पौष्टिक रूप में (tonic form) व्यबहार किया जाता है। स्कर्वी की चिकित्सा और रक्त शोधक के रूप में यह व्यवहार किया जाता है (DPUM, Page-406) 1

निर्जलीकरण (dehydration) में शरीर तरल (body fluid) में खनिज लवण की कमी की पूर्ति के लिए (remineralizing); कफ्फोत्सारक, (expector-ant), रक्त में चीनी की बढ़ गई मात्रा को कम करने या कोशिका स्तर पर चीनी की उपयोगिता बढ़ाने के लिए हाइपोग्लाइकेमिक (hypoglacaemic) के रूप में, दाँत दर्दो (odontalgic) आदि में इसके रसायन व्यवहार किए जाते हैं (MEMP-Page 203).

इसके रासायनिक पदार्थ उपरोक्त गुण, धर्म और क्रियाओं के कारण शरीर तरल (body fluid == lymph and blood) को स्टीडी स्टेट में बनाये रखते है, जिससे स्वास्थ्य की दशा का बोध होता है (मेकानिज्म को जानकारी के लिए होम्योस्टैटिक मेकॉनिज्म और इलेक्ट्रो होम्यो पैथी" नामक पुस्तक, जिसके लेखक डा० सुदामा प्रसाद सिंह है, सम्पर्क किया जा सकता है।).

"ग्लॉसरी ऑफ इण्डियन मेडीसीनल प्लान्ट्स (GIMP) के पृष्ठ 174 पर इसके पौधों को क्षुधावर्द्धक (appetizer), स्कर्वी रोधक (antiscorbutic), उत्तेजक (stimulant) आदि क्रिया वाला बताया गया है। इसका उपयोग छाती सम्बन्धी रोगों की तकलीफों को दूर करने के लिए किया जाता है।

यह वनस्पति अपने रक्तातिसार नाशक और उत्तेजक गुणों और क्रियाओ के लिए बहुत प्रसिद्ध है। ब्राजील में इसे छाती की तकलीफों (जिसमे यकृत, फेफड़े और हृदय शामिल है) को दूर करने के लिए व्यवहार किया जाता है (बनी० चन्द्र० भाग - 6, पृष्ठ 138).

10. वनस्पति व्यवहार के प्रचलित स्वरूप - ओषधीय कार्यों के लिए इस वनस्पति का सीरप, इन्पयूजन, काढ़ा या फांट (decoction), टिक्चर (अल्कोहोलीक) तरल-सत्व, स्वरस (Juice) आदि कई रूपों में व्यवहार प्रचलित है। इलेक्ट्रो होम्यो पैथी में ओषधि विन्यास के लिए इसके टिंक्चर व्यवहार करने का विधान है।


11. टिप्पणी - इस वनस्पति के फूलों में परागरजों (pollen) की सान्द्रता अति ही उच्च होती है, फलस्वरूप मधू-रस के लिए मधुमक्खियाँ इसके फूलों को बहुत पसन्द करती हैं। इसके रसों में निकोटीन भी पाई जाती है, जिसके कारण कुछ लोग नशा के लिए इसके स्वरस व्यवहार करते है। इसकी भारी खुराक या अधिक मात्रा के अनुपान से पेट की गड़बड़ी हो जाती है। फलस्वरुप पाचन की क्रिया शिथिल और दोष पूर्ण हो जाती है। जबकि इसकी अल्प मात्रा में सेवन करने से भूख बढ़ती है, और पाचन की क्रिया भली प्रकार होती है। कुछ स्थानीय लोग इसकी अल्पमात्रा प्रायः सलाद के रूप में उपयोग करते हैं। सलाद के रूप में व्यवहार के पूर्व इसकी पत्तियों को भली प्रकार धो लेना चाहिए। इसकी अल्प मात्रा के अनुपान से ही विटामीनों और खनिज लवणों की पूर्ति हो जाती है।


पूर्व की कण्डिका नौ में उल्लिखित इसके सभी गुण, धर्म और क्रियाएँ इससे प्राप्त सेकेन्डरी प्रोडक्ट्स कहलाने वाले रासायनिक पदार्थों के अवश्य हैं, परन्तु उन्हें वह गुण और क्रियाएँ प्रदान करने वाले वनस्पति के प्राइमरी प्रोडक्ट्स है, जो उनके साथ-साथ क्वाथ और आसवन (decoction and distilation) को छोड़कर प्रायः प्रत्येक व्यवहृत स्वरूप में उपस्थित रहते हैं, भले ही उनकी सान्द्रता व्यवहृत स्वरूप में अति ही न्यून क्यों न हो, फिर भी वे सक्रीय रहते है।

12. भारतीय विकल्प - यह वनस्पति भारत में उपलब्ध है, इसलिए इसके विकल्प पौधा की आवश्यकता नहीं है ।

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